श्रीनारायण मूर्ति पूजन महात्म्य
यह एक सत्य सिद्धांत है कि जहाँ पर श्रीनारायण शयन करते हैं, वहाँ पर श्रीलक्ष्मी जी बैठ जाती हैं। अतः भगवान का शयन स्वरूप ही सर्व प्रकार से श्रेयस्कर है, अर्थात गृहस्थ मनुष्यों के घरों में सर्वश्रेष्ठ भक्ति के योग्य है।
जहाँ शेषशायी का स्थान होता है, वहीं धर्म स्थापित होता है।
- जो मनुष्य अजन्मा भगवान विष्णु के स्वरूप को अपने घर में विराजित करते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों को निश्चय ही पवित्र कर देते हैं।
- शंख–चक्र से युक्त, उत्तम धातु से निर्मित और उत्तम लक्षणों वाले विष्णु भगवान का स्वरूप किसी महाभाग्यशाली मनुष्य के घर में ही सुशोभित हो सकता है।
- ऐसे दिव्य, सर्वांग सुंदर श्रीनारायण के स्वरूप की भक्तिपूर्वक पूजा–अर्चना करने वाला गृहस्थ वैकुण्ठ लोक में प्रतिष्ठित होता है।
- विष्णु भगवान की आराधना करने वाला अपनी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण कर अंत में परम शांति प्राप्त करता है।
- श्रीनारायण की पूजा करने से चींटी से लेकर ब्रह्माजी पर्यंत सभी की पूजा हो जाती है।
- अष्टलक्ष्मी के निवास, लक्ष्मीकांत श्रीविष्णु भगवान ही समस्त लोकों के स्वामी हैं।
- जिसे स्वरूप प्राप्त हुआ, उसे भगवान विष्णु की भक्ति–पूजा का अवसर प्राप्त हुआ, और यही उसके पुण्य के प्रकट होने का प्रमाण है।
- जो मनुष्य भक्तिपूर्वक भगवान के स्वरूप को विराजमान कर उसकी पूजा–अर्चना करता है, वह निश्चित ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — चारों पुरुषार्थ प्राप्त करता है।
- जो श्रीभगवान विष्णु के नाम का चिंतन करता है, उसे प्रतिदिन बारंबार नमस्कार है।
जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में रहती है। - हे विप्रवर नारद! जानकर या बिना जाने भी जो लोग भगवान की पूजा करते हैं, उन्हें अविनाशी भगवान नारायण अवश्य मोक्ष प्रदान करते हैं।
- सब भाई–बन्धु अनित्य हैं, धन–वैभव भी स्थायी नहीं, और मृत्यु सदा समीप खड़ी रहती है — यह सोचकर मनुष्य को धर्म का संचय करना चाहिए।
सर्वकल्याण महापूजा दर्शन
सर्वकल्याण महापूजा के उपरांत घर में पधारे श्रीनारायण के स्वरूप श्रेष्ठ और उत्तम फल प्रदान करते हैं।
बाकी अन्य मूर्तियाँ, जो न विधिपूर्वक बनाई गईं और न विधिपूर्वक घर में विराजित हुईं, उनके पूजन को तो व्यर्थ श्रम ही जानना चाहिए।
अतः सर्व प्रयत्न से केवल श्रीनारायण भगवान के वे स्वरूप प्राप्त करें, जो दर्शनीय एवं मनोहारी हों।
उनकी अर्चना से निश्चित ही सौभाग्य एवं संपन्नता का आगमन होता है तथा गृहस्थ को पूजन–अर्चना का संपूर्ण फल प्राप्त होता है।
पुराण कहते हैं कि…
भगवान विष्णु के भजन में लगा हुआ जो मानव अविनाशी, अनंत, विश्वरूप तथा रोग–शोक से रहित भगवान नारायण का चिंतन करता है, वह करोड़ों पापों से मुक्त हो जाता है। साधु पुरुषों के हृदय में विराजमान भगवान विष्णु का स्मरण, पूजन, ध्यान अथवा नमस्कार किया जाए तो वे सब पापों का निश्चय ही नाश कर देते हैं।
जो किसी के संपर्क से अथवा मोहवश भी भगवान विष्णु का पूजन करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर उनके वैकुण्ठधाम में जाता है। भगवान विष्णु का स्मरण करने से संपूर्ण क्लेशों की राशि नष्ट हो जाती है तथा उस मनुष्य को स्वर्गादि भोगों की प्राप्ति होती है — यह स्वयं ही अनुमान हो जाता है। मनुष्य जन्म बड़ा दुर्लभ है। जो लोग इसे पाते हैं, वे धन्य हैं। मानव जन्म मिलने पर भी विष्णु भगवान की भक्ति और भी दुर्लभ बताई गई है।
इसलिए बिजली की तरह चंचल (क्षणभंगुर) एवं दुर्लभ मानव जन्म को पाकर भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु का भजन करना चाहिए। वे भगवान ही अज्ञानी जीवों को अज्ञानमय बंधन से छुड़ाने वाले हैं। भगवान के भजन से सब विघ्न नष्ट हो जाते हैं तथा मन की शुद्धि होती है। भगवान जनार्दन के पूजित होने पर मनुष्य परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है। भगवान की आराधना में लगे हुए मनुष्यों के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक सनातन पुरुषार्थ सफल हो जाते हैं।
नारदजी ने पूछा — भगवान, कर्म से देह मिलती है। देहधारी जीव कामना से बंधता है। काम से वह लोभ के वशीभूत होता है और लोभ से क्रोध के अधीन हो जाता है। क्रोध से धर्म का नाश होता है। धर्म के नाश से बुद्धि बिगड़ जाती है और जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य पुनः पाप करने लगता है। अतः देह ही पाप की जड़ है तथा उसी से पापकर्म में प्रवृत्ति होती है। इसलिए मनुष्य इस देह के भ्रम को त्यागकर जिस प्रकार मोक्ष का भागी हो सके, वह उपाय बताइए। श्री सनकजी ने कहा — महाप्राज्ञ सुव्रत! जिनकी आशा से ब्रह्माजी संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा रुद्र संहार करते हैं, महत्तत्त्व से लेकर विशेष पर्यंत सभी तत्त्व जिनके प्रभाव से उत्पन्न हुए हैं, उन रोग–शोक से रहित, सर्वव्यापी भगवान नारायण को ही मोक्षदाता जानना चाहिए। संपूर्ण चराचर जगत जिनसे भिन्न नहीं है तथा जो जरा और मृत्यु से परे हैं, उस तेजस्वी, प्रभावशाली भगवान नारायण का ध्यान करके मनुष्य दुख से मुक्त हो जाता है। जो विकार रहित, अजन्मा, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निरंजन, ज्ञानरूप तथा सच्चिदानंदमय हैं, ब्रह्मा आदि देवता जिनके अवतारस्वरूपों की सदा आराधना करते हैं, वे श्रीहरि ही सनातन स्थान (परमधाम या मोक्ष) के दाता हैं — ऐसा जानना चाहिए।
जो निर्गुण होकर भी संपूर्ण गुणों के आधार हैं, लोकों पर अनुग्रह करने के लिए विविध रूप धारण करते हैं और सबके हृदयाकाश में विराजमान तथा सर्वत्र परिपूर्ण हैं, जिनकी कहीं भी उपमा नहीं है तथा जो सबके आधार हैं — उन भगवान की शरण में जाना चाहिए। जो कल्प के अंत में सृष्टि को अपने भीतर समेटकर स्वयं जल में शयन करते हैं, वेदार्थ के ज्ञाता तथा कर्मकांड के विद्वान नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा जिनकी आराधना करते हैं, वे ही भगवान कर्मफल के दाता हैं और निष्काम भाव से कर्म करने वालों को वे ही मोक्ष देते हैं। जो ध्यान, प्रणाम अथवा भक्तिपूर्वक पूजन करने पर अपना सनातन स्थान वैकुण्ठ प्रदान करते हैं, उन दयालु भगवान की आराधना करनी चाहिए। मुनीश्वर! जिनके चरणारविंदों की पूजा करके देहाभिमानी जीव भी शीघ्र ही अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं को ज्ञानीजन पुरुषोत्तम मानते हैं। जो आनंदस्वरूप, जरारहित, परमज्योतिर्मय, सनातन व परात्पर ब्रह्म हैं — वही भगवान विष्णु का सुप्रसिद्ध परम पद है।
जो अद्वैत, निर्गुण, नित्य, अद्वितीय, अनुपम, परिपूर्ण तथा ज्ञानमय ब्रह्म हैं, उसी को साधु पुरुष मोक्ष का साधन मानते हैं। जो योगी पुरुष योगमार्ग की विधि से ऐसे परम तत्व की उपासना करता है, वह परम पद को प्राप्त होता है। जो सब प्रकार की आसक्तियों का त्याग करने वाला, शम–दम आदि गुणों से युक्त और काम आदि दोषों से रहित है, वह योगी परम पद को पाता है। जहाँ विष्णु भगवान के स्वरूप विराजमान होते हैं, वहाँ अपने ऐश्वर्य के साथ श्रीलक्ष्मीजी विराजमान रहती हैं।
अष्टलक्ष्मी का अर्थ है — लक्ष्मीजी के आठ विशेष रूप :
आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
स्वरूप स्थापना संपूर्ण विधि
- सर्वप्रथम हम अपने मन में भगवान की भक्ति का भाव, प्रेम और निश्चय लेते हैं कि विष्णु भगवान की पूजा-अर्चना सर्वश्रेष्ठ है। नारायण में महत्त्व बुद्धि लाकर अपनी बुद्धि को जागृत करते हैं।
- इसके पश्चात हम अपने स्वरूप को सुनिश्चित करते हैं कि हमें उत्तम, मध्य या साधारण कौन-सा स्वरूप प्राप्त करना है। (स्वर्ण, रजत आदि धातुओं के प्रमाण के अनुसार ये स्वरूप भिन्न-भिन्न श्रेणियों के बनाए जाते हैं।)
- तत्पश्चात स्वरूप की जो भी सेवा राशि है, वह अर्पण करते हैं। इसके पश्चात सर्वकल्याण महापूजा के समय पूजा-अर्चना हेतु उपस्थित होकर अपने स्वयं के महापूजन को संपन्न करते हैं।
- यदि कोई स्वयं नहीं बैठ सकता, किसी मजबूरीवश, तो पहले दिन स्वयं बैठे और दूसरे दिन किसी बंधु-बांधव के द्वारा पूजन कराया जा सकता है। अपनी सुविधानुसार पूजन को महत्त्वपूर्ण जानना चाहिए।
- कोई भी व्यक्ति स्वरूप ले सकता है — पति-पत्नी हों या दोनों में से एक, विवाहित या अविवाहित, बालक, युवा, वृद्ध — किसी भी परिस्थिति में, किसी भी जाति या वर्ग के हों, सभी तथा कोई भी किसी भी देश, राज्य या स्थान पर रहकर विष्णु भगवान की भक्ति कर सकते हैं। अतः स्वरूप लेना सभी के लिए संभव है।
- श्रीनारायण मक्ति पंथ की सर्वकल्याण महापूजा करने वाले को ही पंथ द्वारा स्वरूप प्रदान किए जाते हैं, क्योंकि सर्वकल्याण महापूजा के द्वारा पहले दिन की पूजा से मूर्ति निर्माण के समय किए गए ताप और स्पर्श के दोष नष्ट होते हैं।
(तपाना, पीटना, पैरों से जाना, अशुद्ध अवस्था में हाथ लगाना, अशुद्ध बोलते हुए हाथ लगाना, भूमि पर रखना — ये सब निर्माण दोष हैं।) - दूसरे दिन की पूजा से मूर्ति बनाने वालों के द्वारा किए गए स्वार्थ भावयुक्त कर्म का दोष नष्ट होता है।
(अर्थात धन के हेतु से प्रतिमा बनाना, क्रय-विक्रय करना, उस धन से स्वार्थ पूर्ति करना, व्यसन करना, व्यापार करना, उसे देवता न मानकर मजदूरी का उपाय समझना — ये सभी दोष नष्ट होते हैं।) - तीसरे दिन की पूजा-अर्चना से स्वरूप में सिद्धता आती है, अर्थात वह पूजनीय हो जाता है।
- चौथे दिन की पूजा-अर्चना से श्रीनारायण भगवान का, उनके आयुधों तथा पार्षदों का तत्त्व स्वरूप में स्थापित होता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, श्रीलक्ष्मीजी, शंख, सुदर्शन, कौमुदकी, पावक, पवित्रता तथा जगदीश सभी उसमें विराजमान होते हैं।
- पंचम दिवस की पूजा-अर्चना से भक्त के भीतर सिद्धि उत्पन्न होती है। यह पूजा अर्चना, उपासना, साधना और भक्ति को सिद्ध करती है।
- षष्ठम दिवस की पूजा-अर्चना श्रीलक्ष्मीजी की प्रसन्नता का हेतु बनती है, जिससे समग्र ऐश्वर्य और संपदाओं का आकर्षण होता है। श्रीलक्ष्मीजी विष्णु भगवान की सेवा हेतु भगवान के साथ ही हमारे घर में प्रवेश करती हैं, और इसी कारण हमारे घर में संपदाओं का आगमन होता है।
- सप्तम दिवस की पूजा-अर्चना सर्वकारणों की देने वाली होती है। इससे भगवान से रक्षा प्राप्त होती है, अपने पापों और अपराधों की क्षमा मिलती है तथा पापों में स्थित संकल्प विलीन होता है। इसमें शुद्ध अंतःकरण का होना तथा आत्मा के उद्धार का मार्ग सुनिश्चित होता है।
- सर्वकल्याण महापूजा के संपन्न होने के पश्चात, मण्डप में श्रीगुरुदेव के कर-कमलों से स्वरूप को स्पर्श करवाकर अपने घर पर लाकर विराजमान किया जाता है। आनंद और जयजयकार के साथ स्वरूप को अपने घर के पूजा स्थान पर, अर्थात घर के मंदिर के प्रधान स्थल पर, विराजमान करना चाहिए।
- इसके पश्चात श्रीगुरुदेव का आगमन हमारे घर पर होता है, जिसकी सूचना पंथ के अधिकारी द्वारा हमें दी जाती है। तब समस्त तैयारी भक्त द्वारा की जाती है।
- श्रीगुरुदेव जब स्वरूप का हृदयस्पर्श कर वासुदेवनाम आदि का पठन करते हैं, तब उनमें अद्भुत दिव्य अलकनंदा प्रतिक्षित होती है तथा आचार्य के स्पर्श से भगवान के स्वरूप में तत्त्व स्फुरित होता है। इस प्रकार से नारायण शक्ति पंथ की विधि अनुसार हमारे घर में भगवान के स्वरूप की स्थापना की जाती है और हमें सनातन धर्म के अनुसार मूल स्वरूप की भक्ति का परम सौभाग्य प्राप्त होता है।
- हम प्रतिदिन पूजा-अर्चना में भगवान से अत्यंत प्रेम करें। प्रेमी भक्त द्वारा किए गए लघु पूजन भी श्रेष्ठ होते हैं।
जो प्रतिदिन बड़ी पूजा न कर सके, वह एकादशी तिथि, पूर्णिमा, कार्तिक मास तथा पुरुषोत्तम मास (अधिकमास) में विशेष भक्ति-पूजा करें और अक्षय पुण्य फल के साथ अनंत आशिर्वाद प्राप्त करें। - भगवान की विधि को पूजन-अर्चना से किया जा सकता है, इसमें कोई संकोच नहीं है।
- जो भक्त एकनिष्ठ और एकाग्र होकर केवल विष्णु भगवान की भक्ति कर मोक्ष अथवा भगवान का साक्षात्कार करना चाहते हैं, उन्हें केवल भगवान के स्वरूप की ही भक्ति करनी चाहिए।
गणपति, लक्ष्मीजी, शिवजी, दुर्गादेवी एवं अवतार हनुमानजी, कुलदेवी आदि की पूजा का निषेध नहीं है।



