परमपथ की जीवन यात्रा
ईश्वर–भक्त विभूतियों का समय–समय पर संत रूप में धरती पर आविर्भाव होता है। भारतवर्ष की पुण्यधरा पर अनादि काल से ऐसे संत–महापुरुषों का प्रादुर्भाव हुआ है, जिनके जन्म और कर्म महान थे तथा जिनका जीवन परमात्मा–प्रेम और आत्मज्ञान से परिपूर्ण था। इन संतजनों ने धरती पर ईश्वर के नाम का प्रचार–प्रसार किया और प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर के प्रति समर्पित होने का संदेश दिया। उन संतजनों की शिक्षाओं पर चलकर असंख्य नर–नारियों ने ईश्वर को प्राप्त किया तथा आत्मज्ञान पाकर जीवन–मुक्त हो गए।
मनुष्य जन्म पाकर परमात्मा को पा लेना ही सच्ची और सबसे बड़ी उपलब्धि है, परंतु संत–सद्गुरु की कृपा के बिना कोई उस उपलब्धि तक नहीं पहुँच पाता। संतजन ही कृपा करके जीव को ईश्वर से मिलाते हैं।
ऐसे संतों की महिमा अपार है; उनके चरणों में प्रणाम बारंबार है। भारतवर्ष में अवतरित हुए संतों की श्रृंखला में एक नाम परम पूज्य संत श्री लोकेशानंद जी महाराज का है। श्रीगुरुदेव ऐसे विलक्षण संत हैं, जिनके सान्निध्य में आने मात्र से मन में ईश्वर–भक्ति और हृदय में आनंद की अनुभूति होने लगती है। श्रीगुरुदेव भारतवर्ष का सौभाग्य और देश की आध्यात्मिक पहचान भी हैं। वे ऐसे सद्गुरु हैं जिनकी पूजा असंख्य शिष्य अपने हृदय–मंदिर में नित्य करते हैं।
ईश्वरीय अंश विद्यमान होने से जीवन की विपरीत परिस्थितियाँ भी उनके लिए वरदान बन गईं। अल्पायु में संसार की असारता को भली–भाँति जानकर संसार को छोड़ ईश्वर–भक्ति के मार्ग पर वे चल पड़े। आज उनका जीवन समग्र संसार के लिए प्रेरणादायी है। आइए, उनके महान जीवन की यात्रा का दर्शन करें।
21 फरवरी सन् 1980 को मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में एक भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में श्रीगुरुदेव का आविर्भाव प्रातः 7:05 पर हुआ। कहा जाता है कि परमात्मा के पथ पर चलते–चलते जिन भक्तपुरुषों का शरीर छूट जाता है, वे पुनः अपनी यात्रा पूर्ण करने के लिए उत्तम कुलों में जन्म लेते हैं। अतः भक्तिमती माता श्री ललिता देवी के गर्भ से श्रीगुरुदेव का आविर्भाव हुआ। आपके पिता का नाम श्री वीरेन्द्र कुमार था। उनका देहावसान दिसंबर सन् 2004 में हुआ।
नित्यवन्दनिय, परमपूज्य संत लोकेशानंद जी महाराज
श्रीगुरुदेव का दिव्य बाल्यकाल और वैराग्य
श्रीगुरुदेव में जन्म से ही तेजस्विता और गंभीरता थी। बाल्यकाल से ही छोटी बहन के साथ उनकी परवरिश नानाजी के यहाँ हुई। सात–आठ वर्ष की आयु में ही बालकों के साथ खेलते–खेलते आप योगियों की तरह ध्यान–मुद्रा में बैठ जाते थे और श्रीभगवान नारायण का ध्यान करने लगते थे। किसी के पूछने पर आप प्रसन्नतापूर्वक कहते — “मुझे तो यही खेल प्रिय लगता है।”
श्रीगुरुदेव ने लौकिक शिक्षा में आगे बढ़ते हुए केवल 10वीं कक्षा तक की पढ़ाई सम्पन्न की। विद्यार्थी काल में भी आपका मन भक्तिभाव से ही जुड़ा रहा।
एक बार संयोगवश आपने कहीं पर जलती हुई चिता देखी। चलते–चलते आपके पैर वहीं रुक गए। उस क्षण आपकी अंतरात्मा ने संसार में विचरने वाले मन को समझाया कि यही जीवन का अंत है। जिस जीवन में अंधी दौड़ है, राग है, द्वेष है, लोभ–मोह है, ताप और संताप है — उसमें थोड़ी देर सुख और प्रसन्नता का आभास होता है, परंतु फिर दुःख व्याप जाता है। ऐसे जीवन का अंत मृत्यु के साथ हो जाता है। फिर यदि ज्ञान न हुआ तो एक और अज्ञान से भरा जीवन प्रारंभ हो जाता है — एक नई दौड़ जिसका अंत नहीं, फिर भी मनुष्य दौड़ता रहता है।
जिन पुत्र, परिवार तथा संबंधियों के प्रति मोह रखकर मनुष्य जीवनभर परिश्रम करता है, वही एक दिन उसे श्मशान में अग्नि के सुपुर्द कर देते हैं। अज्ञान में भटकता हुआ जीव फिर कहीं जन्म लेता है, फिर मोह में फँसता है और मृत्यु आने पर वहाँ से चल देता है।
आत्मा का अज्ञान कई जन्मों तक जीव को आवागमन के चक्र में घुमाता है, केवल प्रभु–भक्ति से ही यह आवागमन नष्ट होता है। इस प्रकार पूर्व के संस्कारों से आपके मन में भक्तिभाव का प्रकाश हुआ। मृत्यु आने पर सारा धन–वैभव छूट जाता है, संसार की प्राप्ति अप्राप्ति में बदल जाती है; अतः ईश्वर को छोड़कर कहीं भी सार नहीं।
इस सत्य का बार–बार मन में चिंतन करते–करते आपकी अंतरात्मा से आवाज आई —
“छोड़ दो, इससे पहले कि तुम्हें दुनिया छोड़ दे।”
और इसी विचार को मन में रखकर आपने मात्र 15 वर्ष की अल्पायु में शिक्षा व संबंधियों के मोह को छोड़कर परमात्मा–प्राप्ति के परमपथ पर अपने कदम रख दिए।
संत श्री लोकेशानंद जी महाराज फोटो




























ईश्वर कृपा का दर्शन — गुरु रूप में
इस परमपथ की यात्रा के प्रारंभ में ही आपको ईश्वर–कृपा का दर्शन गुरु–रूप में हुआ। महाराष्ट्र के श्रीक्षेत्र गणेशपुरी के एकांत में, लौकिक प्रपंचों और प्रसिद्धि से सर्वथा दूर रहने वाले ज्ञानसम्पन्न, भक्तिसिद्ध महात्मा श्री अच्युतानंद जी महाराज ने आपको अपना शिष्य स्वीकार किया। कुछ ही काल पश्चात् उनके ब्रह्मलीन हो जाने से आपको उनका सान्निध्य अधिक समय तक प्राप्त नहीं हो सका।
गुरु के थोड़े से उपदेश और सान्निध्य ने ही आपके ज्ञान–चक्षुओं को खोल दिया। अपने सद्गुरु के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् भी आपने उन्हें सदैव अपने साथ ही पाया। उनके मार्गदर्शन पर आगे आप भक्ति के पथ पर चल पड़े। विभिन्न स्थानों पर आपने कठिन तपस्या की। श्री पद्मनाभ भगवान नारायण का स्मरण और भक्ति ही आपकी साधना का प्रधान अंग रहा। लगभग दस वर्षों तक आपने देशाटन एवं तपस्या की। इस गहन साधना–काल के अंत में आपको भगवद्ज्ञान की उपलब्धि प्राप्त हुई।
हृदय में ईश्वर की अनुभूति होते ही आपका जीवन दिव्य हो गया। आप कुछ समय तक ईश्वरीय अनुभूतियों की आनंदपूर्ण गहराइयों में डूबे रहे। स्थिति परिपक्व होने के पश्चात् ईश्वर ने आपको अपने अंतर में स्थित भक्तिभाव को संसार के कल्याण हेतु बाँटने की प्रेरणा दी। तब अल्पायु में ही आप अध्यात्म के महान सद्गुरु के रूप में अपने अनुभव से ओतप्रोत वाणी द्वारा जिज्ञासुओं के हृदय में भक्तिभाव का सिंचन करने लगे।
आज आपकी वाणी सुनकर असंख्य नर–नारी ईश्वर मार्ग पर चल रहे हैं। आप संसार के अनेकों हृदयों में बसने वाले महान सद्गुरु के रूप में प्रकाशमान हैं। आपके दिव्य कर्मों को देखकर आपमें ईश्वरीय अंश की परिपूर्णता का अनुभव होता है। आपके द्वारा मंत्रदीक्षा प्राप्त करने वाले शिष्य ईश्वर–कृपा के पात्र बन जाते हैं।
आप ऐसे महापुरुष हैं जिनकी कृपा–दृष्टि केवल भाग्यवानों को ही प्राप्त होती है। आपका दर्शन और सान्निध्य अत्यंत दुर्लभ है। आपकी आज्ञाओं पर चलने वालों को कभी अमंगल का मुख नहीं देखना पड़ता, क्योंकि आपके हृदय में स्वयं ईश्वर का निवास है।
आज समग्र मानव जाति आपके परमज्ञान से लाभान्वित होने का सौभाग्य प्राप्त कर रही है।
श्रीभगवान के मंदिर में जाने से, दर्शन करने से, प्रणाम करने से आत्मकल्याण निश्चय ही होता है। अतःमंदिर में जाना पुण्य है और मंदिर बनाना तो महापुण्य है। मंदिर का निर्माण कराने वाला मनुष्य अनंतकाल तक भगद्धाम में निवास करता है। – परम वंदनीय संतश्री लोकेशानंदजी महाराज