गुरुदेव सत्संग
प्रभु पथ
ईश्वर से प्रीति लगाना ही अंतिम सत्य है, क्योंकि संसार में मनुष्य के जीवन भर के किए को मृत्यु आकर बिगाड़ देती है।
मनुष्य माता के गर्भ में नौ मास रहकर गर्भ–यातना सहता है, तब संसार में आता है। जन्म के समय उसके दाँत भी नहीं होते, खाने के लिए वह पराश्रित होता है, बोलने के लिए वाणी भी उसके पास नहीं होती। गिरते–पड़ते वह खड़ा होना सीखता है। फिर विद्यालय जाता है, वहाँ और भी बहुत से बालक होते हैं। अभी ये मनुष्य छोटी अवस्था में हैं —
आज ये विद्यालयों में हैं,
कल बाज़ारों में होंगे,
और परसों श्मशानों में…
यही होता आ रहा है, यही हो रहा है और आगे भी होता रहेगा।
संसार की इस गति को समझो और ईश्वर–भक्ति के पथ पर चलकर अपना मनुष्य–जन्म सफल कर लो।
लेकिन जैसे ही तुम प्रभु–पथ पर अपने कदम रखोगे, संसारी तिलमिला उठेंगे। सबके माथे ठनक जाएंगे, कई तो पीछे खींचने के लिए दौड़ पड़ेंगे। प्रभु–पथ पर चलने वाले संत को हजारों प्रणाम करने वाले लोग भी नासमझ होकर साधक को विचलित करने लगते हैं।
पर अब कोई कितना भी खींचे या रोके, साधक सावधान होता है — वह ध्रुव, तुलसी और महावीर की तरह तटस्थ होता है। जिन्हें भगवान प्रिय नहीं, वे साधक को प्रिय नहीं लगते, और भगवान के लिए साधक सबको त्याग देता है।
जो संसार में बुरे मार्ग पर चले जाते हैं अथवा जिनकी असमय मृत्यु हो जाती है, उनके लिए कोई क्या कर सकता है?
इन दुनियावालों को अपनी दुर्गति का बोध नहीं और ये दूसरों की सद्गति में बाधक बनते हैं।
इन्हें स्वयं का ज्ञान नहीं, पर दूसरों के मार्गदर्शक बनना चाहते हैं।
पल–पल जल रही है, दुःख में पल रही है,
खुद तो भटक रही है, दूसरों को रास्ता दिखा रही है।
ये निपट नकली लोग हैं — न खुद कुछ शाश्वत प्राप्त करते हैं, न किसी के परमपथ के सहायक बनते हैं।
पूरा जीवन माया के पीछे दौड़ते हैं और आख़िरी में कहते हैं — “राम नाम सत्य है।”
जब जीवित थे और कह रहे थे “राम नाम सत्य है”, तब उसी को दुखी कर रहे थे जो राम का नाम ले रहा था — “तू ये क्या कर रहा है? इससे क्या होगा?”
और जब संसार से चल दिए, तब कहते हैं “राम नाम सत्य है।”
अब इस सत्य को वह कैसे जाने? अब ये उसके किस काम का?
और यदि कोई पूछे — “राम नाम सत्य है बोल रहे हो, तो तुम क्यों नहीं राम का नाम लेते?”
तो कहेंगे — “संसार नहीं छूटता।”
या फिर कहेंगे — “यदि सभी भक्ति करने लगें तो संसार कैसे चलेगा?”
पर इनकी ये सभी बातें निरर्थक और निराधार हैं।
ये लोग दो कौड़ी के संसार को मूल्यवान समझते हैं। ईश्वर का इन्होंने कोई मूल्य नहीं समझा। इनके लिए जीवन से मूल्यवान माया है, भले ही उस माया से जीवन का एक पल भी न खरीदा जा सके।
कई बार लोग कहते हैं — “हमने यह ज़मीन एक करोड़ में खरीदी थी, आज बीस साल बाद बीस करोड़ की हो गई।”
लेकिन क्या जिंदगी के जो बीस साल चले गए, वो बीस करोड़ देने से मिल जाएंगे?
बीस साल तो क्या, बीस मिनट भी नहीं मिल सकते।
इसलिए धन नहीं, जीवन मूल्यवान है।
ये मत देखो कि भाव कितना बढ़ गया,
ये देखो कि जीवन कितना घट गया।
हर दिन मौत दिख रही है — परिवार में, पड़ोस में, अख़बार में, समाचारों में।
मौत है पीछे, मौत है आगे,
चाहे कोई कितना भागे।
फिर भी समझ नहीं आता कि हम भी एक दिन मर जाएंगे।
लगे हैं खोखे इकट्ठा करने में, और जिस दिन शरीर रूपी खोखा खाली हुआ, उस दिन ये खोखे दो कौड़ी के भी नहीं बचेंगे।
संसार में ये चार बातें सत्य हैं —
- पूरा सुखी कोई नहीं।
- सदा कोई रहता नहीं।
- कुछ भी साथ जाता नहीं।
- सब कुछ देकर भी एक सांस खरीदी नहीं जा सकती।
इसलिए संसार की परायी मजदूरी छोड़कर मन को भक्ति में लगाओ।
यह समझो —
चली जा रही है उमर धीरे–धीरे,
सुबह, शाम और दोपहर धीरे–धीरे।
बचपन भी बीता, जवानी भी बीती,
बुढ़ापे का होगा असर धीरे–धीरे।।
और फिर एक दिन संसार से जाना पड़ेगा।
उस दिन मृत्यु में देर नहीं होगी, और अर्थी पर शरीर को रस्सियों से बाँधा जाएगा — उसी शरीर को, जिस पर इतना अभिमान था।
तेरे जैसे लाखों आए, लाखों इस माटी ने खाए।
रहा न नाम–निशान, झूठी तेरी शान।
बंदे, मत कर तू अभिमान।
जब अर्थी निकलेगी —
जब तेरी अर्थी निकाली जाएगी,
बिना मुहूर्त के उठा ली जाएगी।
ज़िंदगी किराये का घर है,
एक दिन बदलना पड़ेगा।
या ज़मीं पर कब्र बनेगी, या चिता में जलना पड़ेगा।
अर्थी पर पैसे फेंके जाएंगे — यह बताने के लिए कि जिस पैसे को तूने बहुत महत्व दिया था, उसका कोई मूल्य नहीं।
फिर वहाँ अग्नि देने के बाद कोई पीछे मुड़कर नहीं देखेगा।
धूल में पैदा हुए, धूल में मिल जाएंगे।
कितना कमाया, साथ कुछ नहीं आया।
कफ़न में जेब भी नहीं होती —
मनुष्य जब जन्मता है तब जो पहला कपड़ा पहनता है उसमें भी जेब नहीं होती, और जो आख़िरी कपड़ा पहनता है उसमें भी जेब नहीं होती।
फिर भी जीवन भर जेब भरने में लगा रहता है।
मिट्टी की काया जिस दिन मिट्टी में समाएगी,
न सोना काम आएगा, न चांदी काम आएगी।
श्मशान तक सब साथ चलते हैं, पर आगे कोई नहीं जाता।
आत्मा कहती है — “मुझे यहाँ तक लाने वालों का धन्यवाद, आगे मैं अकेला ही जाऊँगा।”
चिता की आग में तेरा जब तन–बदन जल जाएगा,
तब न बाप बेटे का होगा, न बेटा बाप का होगा।
न मस्जिद की मीनार होगी, न मंदिर का पता होगा,
रहेगा मालिक का, बाकी सब फ़ना होगा।
यह संसार नकली नोट है — इसका परमेश्वर के यहाँ कोई मूल्य नहीं।
असली नोट तो सत्संग, सेवा, भक्ति और अभ्यास हैं।
कबीरजी कहते हैं —
“क्या लेकर जन्म लिया है, क्या लेकर जाओगे,
मुट्ठी बाँधे जन्म लिया है, हाथ पसारे जाओगे।
यह तन है कागज़ की पुड़िया, बूँद पड़े गल जाओगे,
कहे कबीर सुनो भाई साधो, हरि नाम बिना पछताओगे।”
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं —
“उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।”
(उठो, जागो, और सद्गुरु की खोज करो — वही तुम्हें सत्य का ज्ञान कराएँगे।)
कबीर कहते हैं —
“गुरु को कीजे दंडवत कोटि–कोटि प्रणाम,
कबीर पारस सोना करे, गुरु करे आप समान।”
सद्गुरु का मिलना ही सच्चे प्रभु–पथ की प्राप्ति है।
उनके सान्निध्य में रहो, उनके वचनों का पालन करो।
धीरे–धीरे उनके आश्रित होते जाओ, उनके ज्ञान को जीवन में उतारो —
एक दिन तुम्हें अपने ही भीतर ईश्वर का बोध हो जाएगा।
“जैसे तिल में तेल है और पत्थर में आग,
तेरा मालिक तुझमें है, जाग सके तो जाग।”
सद्गुरु तुम्हें आत्मा का ज्ञान कराएँगे, तब मृत्यु का भय सदा के लिए समाप्त हो जाएगा।
जीवित रहते हुए जो भगवान को नहीं जानता, वह वास्तव में मृत है;
और जो भगवान को जान लेता है, वह मरकर भी नहीं मरता।
इसलिए अंत तक जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करो —
सद्गुरु का सान्निध्य, सत्संग और प्रभु–भक्ति ही सच्चा प्रभु–पथ है।

